सूरदास के पद 2 (व्याख्या ,शब्दार्थ, काव्य सौंदर्य)
"मन की मन ही मांझ रही "
मन की मन ही मांझ रही
कहिए जाइ कौन पै उधो ,
नाहीं परत कही ।।
अवधि अधार आस आवन की,
तन मन बिथा सही ।।
अब इन जोग संदेसनी सुनी सुनी,
बिरहिनी बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहीं तैं ,
उत तैं धार बही।
' सूरदास' अब धीर धरहिं क्यौं,
मरजादा न लही ।"
शब्दार्थ:-
मन - हृदय , मन ही- हृदय ही, माँझ-में,कहिए -कहने, जाइ -जाएं, कौन पै -किस के पास,ऊधौ-ऊद्धव, नाहीं -न ही, परत -पा रही ,कही-कहना।
अवधि-समय ,अधार -आधार/सहारा ,आस -आशा आवन-आगमन, तन-शरीर, मन-हृदय, बिथा-व्यथा/कष्ट, सही-सहन करना।
अब इन-अब यह, जोग-योग, संदेसनि-संदेश, सुनि-सुन कर, बिरहिनि-वियोगिनी/जो अपने प्रिय से बिछड़ गई हो, बिरह-विरह/प्रिय से बिछड़ने का कष्ट ,दही -जलना/ दुख सहन करना।
चाहति- चाहना, हुती -थी , गुहारि - रक्षा के लिए पुकारना, जितहिं -जहां , तैं - से, उत - वहां, धार - धारा/ निर्गुण संदेश की धारा, बही - बहना ।
धीर- धैर्य,धरहिं -धारण करना, मरजादा- मर्यादा , न लही - न रही॥
प्रसंग:-
प्रस्तुत पद(मन की मन ही मांझ रही) सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' में उल्लेखित है । 'सूरसागर' के अंतर्गत गोपियों एवं उद्धव के संवाद का प्रसंग आता है जिसे 'भ्रमरगीत' नाम दिया गया है, उसी का अंश हमारी पाठ्य पुस्तक क्षितिज- भाग 2 में संकलित किया गया है । श्री कृष्ण जी के द्वारा भेजे गए उद्धव ने गोपियों को निर्गुण ब्रह्म को जपने का संदेश दिया तथा योग के माध्यम से उसे प्राप्त करने की सलाह दी। उनका यह संदेश सुनकर गोपियॉं व्यथित हो गई और उन्होंने बड़े ही दुखी मन से उद्धव से कहा -
व्याख्या:-
- मन की मन ही मांझी रही ।
हे उद्धव! हमारे हृदय में छिपी हुई बात तो हमारे हृदय में ही रह गई (अर्थात् गोपियॉं सोचती थी, कि जब श्री कृष्ण जी मथुरा से वापस आएंगे, तब वह उन्हें विरह में स्वयं पर हुए सारे कष्टों को सुनाएंगी) परंतु अब उन्होंने निर्गुण ब्रह्म का संदेश आपके हाथों भिजवा दिया ।
'कहिए जाइ कौन पै ऊधौ,
नाहीं परत कही'
अब हम इन सारे कष्टों को किसको कहने के लिए जाएंगी ? अब तो हमसे कुछ भी कही नहीं जाएगी। हमारी तो सारी बातें मन की मन में ही रह गई।
'अवधि अधार आस आवन की,
तन मन बिथा सही'
अब तक हम श्री कृष्ण जी के वापस लौटने की अवधि अर्थात दिए गए समय के सहारे अपने तन और मन पर इस विरह (वियोग)पीड़ा को सहन कर रही थी ।
'अब इन जोग संदेसनि सुनि-सुनि,
बिरहिनि बिरह दही'
अब यह योग का संदेश सुन सुनकर हम विरहिनी विरह में और भी अधिक जलने लगी हैं अर्थात वियोग के दुख में और भी अधिक दुखी हो गई हैं ।
' चाहति हुती गुहारि जितहिं तैं,
उत तें धार बही '
विरह के दुख में डूबती हुई हम गोपियों को जहां से सहायता मिलने की आशा थी और जहां हमने अपनी रक्षा के लिए पुकार लगाई अब वहीं से योग संदेश की ऐसी प्रबल धारा बही है जो हमसे सहन नहीं हो पा रही है अर्थात श्री कृष्ण जी से हमें आशा थी कि वह हमसे मिलने जरूर आएंगे लेकिन उन्होंने हमें भुलाकर योग साधना करने का संदेश भेज दिया।
' सूरदास' अब धीर धरहिं क्यौं,
मरजादा, न लही '
हे उद्धव ! अब तुम ही बताओ कि हम किस प्रकार धैर्य धारण करें ? श्री कृष्ण जी ने ही प्रेम की मर्यादा नहीं रखी । हमने तो श्री कृष्ण जी के लिए अपनी मान मर्यादा सभी को त्याग दिया था परंतु श्री कृष्ण जी ने हमें ही त्याग दिया । उन्होंने प्रेम की मर्यादा नहीं रखी।
काव्य - सौंदर्य:-
(मन की मन ही मांझ रही)
काल - भक्ति काल (श्री कृष्ण काव्य परंपरा)
१. अनुप्रास-
-अवधि अधार आस आवन की
- बिरहिनि बिरह
-धीर धरहिं क्यौं
-संदेसनि सुनि
२. पुनरुक्ति प्रकाश-
-सुनि-सुनि
3. रस -वियोग श्रृंगार ।
4. शब्द- तद्भव शब्दों का प्रयोग है ।
- आस,बिथा,बिरह,जोग,मरजादा ।
5. गुण -माधुर्य गुण ।
6. संगीतात्मकता विद्यमान है ।
7. गीति शैली का प्रयोग भी किया गया है
उपरोक्त पद के संबंध में किसी प्रकार का प्रश्न आपके पास है तो कृपया कमेंट बॉक्स में लिखें।
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